इत्र की खुशबू से महकता कन्नौज अब देश-दुनियाभर के बाजारों में एक से एक किस्म के इत्र भेजने के साथ-साथ इत्र उद्योग को बेहतरीन पेशेवर भी मुहैया कराएगा। तेजी से बढ़ते इत्र एवं सुगंधित तेल उत्पादन उद्योग को आज व्यावसायिक तौर पर प्रशिक्षित पेशेवरों की बेहद शिद्दत से जरूरत है। लिहाजा कन्नौज स्थित फ्रैगनेंस ऐंड फ्लेवर डेवलपमेंट सेंटर (एफएफडीसी) ने एरोमा तकनीक पर देश का पहला फुल टाइम पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स शुरू किया है। एफएफडीसी और देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई)द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया यह कोर्स मुख्य तौर पर एरोमा तकनीक के तकनीकी और प्रैक्टिकल पहलू पर तो गौर करेगा ही, इसकी मार्केटिंग के तरीकों पर भी रोशनी डालेगा।
कृष्ण बिहारी 'नूर' का कलाम आज ग़ज़लें चाहने वालों की ज़बान पर है ग़ज़लों के साथ उनकी छेड़छाड़ जहाँ एक तरफ सूफियाना ढंग की है जो मस्त कलन्दरों की तरह उन्होंने हिन्दू दर्शन और अध्यात्म की दुनिया भीअपनी शायरी में बिलकुल नए अन्दाज़ में पेश की है। | |||
aag hai paanii hai miTTii hai havaa hai mujh me.n aur phir maananaa pa.Dataa hai ke Khudaa hai mujh me.n |
aaiinaa ye to bataataa hai ke mai.n kyaa huu.N lekin aaiinaa is pe hai Khamosh ke kyaa hai mujh me.n |
तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था |
बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था |
कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था |
ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था |
हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस रहे-हयात में यारो घुमाव ऐसा था |
कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था |
फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़ तुम्हारी सिम्त हमारा झुकाव ऐसा था |
वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था |
ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था |
शहरों में तो चढ़ जाता है पीतल पर सोने का पानी कंगन, झुमके, पायल, झूमर, चलिए चलकर गाँव में देखें |
ab to bas jaan hii dene kii hai baarii ai "Noor" mai.n kahaa.N tak karuu.N saabit ke vafaa hai mujh me.n |
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत |
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत |
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत |
आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है |
एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है |
मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले मौत ले जी के खुदा जाने कहाँ छोड़ती है |
ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है |
अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है |
बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती हैं रौशनी एसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है |
खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है |
ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है दूसरा कोई रास्ता ही नहीं |
हिन्दू-मुस्लिम मिल के मनाएँ, होली हो या ईद का मिलन त्योहारों का रूप उजागर, चलिए चलकर गाँव में देखें |
उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं |
कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं |
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं |
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं |
जिसके कारण फ़साद होते हैं उसका कोई अता-पता ही नहीं |
ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं |
ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है दूसरा कोई रास्ता ही नहीं |
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं |
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं |
बड़ा सुकून है, दिन चैन से गुज़रते हैं हम अब किसी से नहीं बस ख़ुदा से डरते हैं |
कुछ ऐसे रास्ते जिनकी नहीं कोई मंज़िल हमारा रास्ता बस काट कर गुज़रते हैं |
ज़मीन छोड़ न पाऊंगा, इंतज़ार ये है वो आसमान से धरती पे कब उतरते हैं |
ये किसने खींच दी साँसों की लक्ष्मण-रेखा कि जिस्म जलता है, बाहर जो पाँव धरते हैं |
हयात देती हैं साँसें, बस इक मुक़ाम तलक फिर उसके बाद तो बस साँस-साँस मरते हैं |
"टुकड़े-टुकड़े हो गया
आइना गिर कर
हाथ से, मेरा चेहरा अनगिनत टुकड़ों में बँटकर रह गया. हफ़ीज़ मेरठी के शब्दों में- "अजीब लोग हैं क्या मुन्सफी की है, हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है. |
kaisii ajiib shart hai diidaar ke liye aa.Nkhe.n jo ba.nd ho.n to vo jalavaa dikhaaii de |
jar do chandi main chahe sone main
aina jhooth bolta hi nahi
Krishna Bihari Noor
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sach ghaTe ya bare to sach na rahe
jhooth ki koi inteha hi nahi
Krishna Bihari Noor
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itne hisso main bat gaya hoon
mai
mere hisse main kuch bacha hi nahi
Krishna Bihari Noor
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Zindgi se bari saza hi nahi
aur kya jurm hai pata hi nahi
Krishna Bihari Noor
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