Thursday, November 3, 2011

जै छठ मइया


जै छठ मइया

सात समुंदर पार वाशिंगटन में भी छठ पर्व की धूम रही। मंगलवार, 1 नवंबर को अनिवासी भारतीय महिलाओं ने ऐतिहासिक पोटोमैक नदी के तट पर पूजा-अर्चना की।
ज्ञात इतिहास और लोक परंपराओं से भी पुराना छठ पर्व अपने बहुत सारे संदर्भ और संदेशों के साथ सांस्कृतिक आंदोलनों का उत्सव भी है। इसी पर्व पर डूबते सूरज को भी अर्ध्य दिया जाता है 


 प्रकृति पूजा के वैदिक आधार वाले हजारों-हजार साल पुराने धार्मिक आख्यानों के थोड़ा ही खुलते ( डी-कोड) यह पर्व, सामाजिक व्याकरण दुरुस्त करने का माध्यम बन जाता है।


बिना वजह नहीं छठ पूजा के मौके पर गाये जाने वाले लोकगीतों में स्त्री व्यक्तित्व की प्रधानता, प्रकृति संरक्षण और जैव विविधता के कई संदेश हैं।


समान लिंगानुपात : सिर्फ बेटे की चाहत में हमारा समाज हिंसक होता जा रहा है। मादा भ्रूण हत्या इसी का परिणाम है।
छठ के एक गीत पर गौर करें- रूनकी झुनकी बेटी मांगीला .. भक्तों का छठी मइया से यह आग्रह समाज में बेटियों (महिलाओं) की महता को दर्शाता है। सुशिक्षित समाज : उक्त गीत की अगली पंक्ति है.. मांगीला पढ़ल पंडित दामाद..। समाज को संतुलित करते इस भावपूर्ण गीत में शिक्षा पर बल है।


साथ ही इसमें बेटे की चाहत भी छिपी हुई है।



स्वस्थ समाज : इस पर्व की स्वच्छता पहली शर्त है। लोग दीपावली की बची-खुची गंदगी को छठ में साफ कर लेते हैं। घर तो घर श्रद्धालु झाड़ू लेकर सड़कों पर भी उतर आते हैं, ताकि व्रतियों को गंदगी का सामना न करना पड़े।

जल संरक्षण : अ‌र्घ्य के लिए जलस्त्रोत की महता सर्वविदित है। यह पर्व लगातार विलुप्त होते तालाब, आहर, पोखर और नदियों को जीवन दान देने के लिए प्रेरित करता है। यह प्रकृति संतुलन की दीर्घकालिक योजना को जीवंत बनाए रखने का इशारा है।


पर्यावरण संरक्षण : इस गीत पर गौर करें .. कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए.. विलुप्त होते जंगल के साथ बांस की उपलब्धता भी घटी है। यदि जंगलों को काटे जाने की रफ्तार यही रही तो धीरे-धीरे बांस भी लुप्त हो जाएंगे।

जैव विविधता : गौर करें, कभी शकरकंद, सुथनी, त्रिफला और ईख की खेती बहुतायत में होती थी। अब कृषि भी नफा-नुकसान पर आधारित हो गई है। अब ये फसलें कई क्षेत्रों में न के बराबर उगाई जाती हैं। यूं कहें इनका महत्व सिर्फ पर्व-त्योहारों तक ही सिमट कर रह गया है। जबकि जैव विविधता के लिए इन्हें बरकरार रखना जरूरी है।


कुटीर उद्योग : बांस के सूप, डालिया, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी के दीये-ढकना, अगरबत्ती आदि का इस पर्व में बड़ा महत्व है। छठ के मौके पर बगैर किसी सरकारी सहायता के इन कुटीर उद्योगों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन मिलता है। सामाजिक समरसता : हर संप्रदाय के लोग इसमें आस्था रखते हैं। इसके लिए तालाबों, नदी के घाटों और सड़क की साफ-सफाई से लेकर रोशनी के प्रबंध तक की जिम्मेदारी का लोग सामूहिकता से साथ निर्वहन करते हैं।
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पटना : बिहार के लोकपर्व छठ के साथ लोकगीत एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आयाम की तरह जुड़े हुए हैं। इनकी मधुरता का एहसास घरों में महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले कोरस या एकल गीतों से बखूबी होता है। छठ मनाने की परंपरा के साथ-साथ उससे जुड़े गीत भी पीढ़ी दर पीढ़ी समाज का हिस्सा बनते जाते हैं। एक समय था जब छठ पर्व की तैयारियों से लेकर पर्व के अंत तक ये मधुर लोकगीत कानों में मिठास घोलते थे। आधुनिकता के दौर में अब इन गीतों के सीडी और कैसेट आने लगे हैं। इससे उनका रस माधुर्य कम हुआ है। प्रख्यात भोजपुरी गायक भरत शर्मा कहते हैं कि छठ के भक्ति गीतों का अपना महत्व है। लोक गायिका नीतू कुमारी नूतन कहती हैं कि छठ गीतों के एल्बम पुरुष स्वर में भी आने लगे हैं। ये गीत उतने मनभावन और कर्णप्रिय नहीं हैं। पारंपरिक गीतों के स्थान पर आ रहे नए गीतों में मिट्टी की महक नहीं रह गई है। प्रसिद्ध गायक-गायिकाओं में महेंद्र कपूर, स्वर कोकिला लता मंगेशकर, ऊषा मंगेशकर और आशा भोंसले ने इस पर्व के गीत गाए हैं। छठ के लोकगीतों का पर्याय बनी मिथिला की गायिका विंध्यवासिनी देवी का नाम कभी भुलाया नहीं जा सकता। मिथिलांचल के घर-घर में उनके गीत गूंजते हैं। उनकी शिष्या शारदा सिन्हा ने छठ के गीतों को अपने स्वरों में पिरोकर उन्हें अमर कर दिया। शारदा के पति बीके सिन्हा कहते हैं कि फिल्मी धुनों पर तैयार होने वाले छठ के गीतों के कारण लोग इसकी मूल भावना से अलग होते जा रहे हैं। सस्ती लोकप्रियता का खामियाजा आने वाली पीढि़यों को भुगतना पड़ेगा।
 सभी चित्र बी०बी०सी० व जागरण से साभार




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